प्रत्येक मनुष्य को गुणवत्ता युक्त जीवन जीने की इच्छा होती है। कुछ मनुष्य जीते भी है ऐसा जीवन।परंतु अधिकतर घिसा-पिटा जीवन ही जीते है।संस्कारों से सत्पात्रता आती है जीवन में । यदि कोई बर्तन है, उदाहरण के लिए गिलास ले लेते है। उस गिलास में यदि हम एक बाल्टी पानी भरना चाहेंगेतो नहीं भर पाएंगे। क्योंकि उसमें सामर्थ्य ही नहीं है कि वह उतना पानी अपने में समा सके। यदि वह अपने सामर्थ्य के अनुसार जितना भी पानी अपने में भरेगा , अपनी धातु के अनुरूप ही वह उस जल ही गुणवत्ता को बढ़ायेगा या घटायेगा । यदि मिट्टी,सोने, चाँदी या तांबे के गिलास में पानी पियेंगे तो, संभवतः पानी की गुणवत्ता बढ़ेगी और उस पानी को पीने से बहुत स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होगा। और वहीं यदि प्लास्टिक की बोतल या गिलास से पानी पियेंगे तो शरीर को नुकसान ही होगा । इस तथ्य का वैज्ञानिक प्रमाण भी है। जिस धातु के गिलास में जितनी अधिक गुणवत्ता है, उतनी ही मेहनत उस बर्तन को बनाने में एवं उससे पहले उस धातु को खान से खदान करके एक निश्चित धातु बनाने में लगी होगी। कहने का तात्पर्य यह है कि, किसी की भी चाहे वह वस्तु हो या फिर व्यक्ति हो गुणवत्ता ही हमारे मोल का निर्धारण करती है।संस्कार ही मनुष्य का मोल तय करती है। व्यक्ति को विशेष बनाती है। सुसंस्कारों द्वारा ही एक व्यक्ति विशेष बना जा सकता है। सनातन धर्म के अनुसार संस्कारों से सत्कर्मों का जन्म होता है एवं सत्कर्मोके तप से स्वयं एक साधारण मनुष्य असाधारण बनकर स्वयं परंब्रह्म में समाहित हो जाता है। यह है संस्कारो की महत्ता। हमेशा से ही संस्कारो की बहुत आवश्यकता रही है।
यदि संस्कार आवश्यक ना होते तो हमारे धर्मग्रंथ एवं ऋषि मुनि इस विषय की चर्चा ही नहीं करते। संस्कार जीवन का आधार है। सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग हो या कलयुग हो संस्कार हर युग में हर समय में महत्वपूर्ण रहें है। इस बात से बहुत हताशा होती है कि किसी भी हिंदू को, किसी भी सनातनी को इस बात का भान तक नहीं है कि ऐसा कुछ भी होता है। यह सब धर्मग्रंथ न पढ़ने का ही नतीजा है। हमें शास्त्रो की जो बात अच्छी लगती है हम उसका पलन करते हैं। और जो हमें पसंद नहीं आती उसको हम कहते है कि यह झूठ है अंधविश्वास है। शास्त्रों में इतना भी नहीं डूबना चाहिए। ऐसे में तो कल के दिन तो फिर हम ईश निंदा करने से भी नहीं डरेंगे। हम भगवान को पूजते है, सिर्फ इसलिए कि हमारी इच्छा पूर्ति हो जाए। या कोई भी स्वार्थ इसके पीछे हो सकता है।
निस्वार्थ भाव से हम ईश्वर तक को याद नहीं करते तो फिर इंसानो की तो क्या ही बात करें। ज्ञान देने का कार्य ब्राह्मणों को सौंपा गया है। ब्राह्मण भी कहने मात्र को ब्राह्मण रह गए है, वे स्वयं धर्म का , सोलह संस्कारों पालन नहीं करते तो अन्य वर्णो को क्या ही ज्ञान देंगे। अब सनातन धर्म में जातिवाद के आधार पर सब कुछ बँटा हुआ है। निश्चित किया गया है कि, फलां , फलां जाति में जन्में लोग ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र हैं। जबकि मनुसूक्ति में कर्मो के आधार पर वर्ण निर्धारित किये गए हैं। "जन्मते जयते शूद्रः कमण्ये द्विज मुच्यते"।अर्थात- जन्म से सब शूद्र होते है और कर्मो से ही ब्राह्मण,पंडित बनते हैं या वर्ण का निर्धारण होता है।जातियों एवं जातिगत भेदभाव ने ही सनातन धर्म को तोड़ने का काम किया है। जिससे सभी असहनीय पीड़ा में है। इस भेदभाव को दूर करना भी चाह रहें है, परंतु अपने- अपने स्तर से कोई भी प्रयास नहीं करना चाह रहा है। शायद कोई निजी स्वार्थ बीच में आ रहा हो।
यह सब जो कुछ भी हम सोचते, कहते और करते हैं,अपने संस्कारो से ही प्रेरित होकर करते हैं। संस्कार अच्छे होंगे तो अच्छा करेंगे एवं बुरे होंगे तो बुरा करेंगे। आज के समय में इतने उत्पात, अपराध एवं पाप हो रहे है इसका कारण मात्र एक है और वह है सोलह संस्कारो का पालन न करना। सनातनी वही है, हिंदू वही है, जो सर्वप्रथम सोलह संस्कारो का पालन करे। अन्यथा वह हिंदू है ही नहीं।जब अपने धर्म के नियमों का पालन ही नहीं कर सकता कोई तो वह स्वयं को कैसे सनातनी कह सकता है।सोलह संस्कारों के पालन से हम एक अच्छे समाज का निर्माण कर सकते है। एक अच्छा जीवन जी सकते है। शिशु में संस्कार गर्भ से ही पड़ते है। ठीक वैसे ही जैसे महाभारत काल में सुभद्रा के गर्भ में अभिमन्यु पर पड़े थे। का निर्माण कर सकते है। एक अच्छा जीवन जी सकते है। शिशु में संस्कार गर्भ से ही पड़ते है। ठीक वैसे ही जैसे महाभारत काल में सुभद्रा के गर्भ में अभिमन्यु पर पड़े थे।